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वर्तमान काल में दर्शनशास्त्र की प्रासंगिकता का प्रश्न

वर्तमान समाज में सामान्यत: दर्शनशास्त्र को एक ऐसी अप्रासंगिक विधा मान लिया गया है, जिसका न तो कोई सामाजिकराजनैतिक महत्त्व है और न ही कोई भी व्यावहारिक उपयोगिता। इसे मात्र बुद्धिजीवियों के व्यसन का अमूर्त विषयभर मान लिया गया। इसका एकमात्र कारण यह प्रतीत होता है कि यह विषय न तो आपकी मेज पर खाना रख सकता है, और न ही यह आपके लिए भवन खड़ी कर सकता है (it does not put food on the table, nor does it build your houses) ऐसा मान लिया गया कि विज्ञान एवं तकनीकी के युग में यह विषय अपनी प्रासंगिकता पूरी तरह से खो चुका है। कुछ लोगों का तो यह भी मानना है कि इस विषय का अध्ययन करने वाले अपने अतिमहत्वपूर्ण मानवजीवन को व्यर्थ कर रहे हैं, क्योंकि यह विषय जीवन और समाज के विकास एवं विस्तार में कोई भी भूमिका नहीं निभा पा रहा है। ऐसे में यह प्रश्न उठ खड़ा होता है कि मैं यह विषय भला क्यों पढ़ूँ?” एन रेंड इस चर्चा को कुछ इस प्रकार प्रस्तुत करती हैं:

अधिकाधिक व्यक्तियों से यदि मानव जीवन के लिए व्यवहारिक रूप से से सर्वाधिक उपयोगी विषयों की एक सूची बनाने के लिए कहां जाए तो वे संभवतः चिकित्सा, कंप्यूटर विज्ञान, इंजीनियरिंग, भौतिकी और (यहां तक कि) राजनीतिशास्त्र का भी उल्लेख करना चाहेंगे, किंतु उनमें से कुछ बिरले ही ऐसे होंगे जो इस सूची में दर्शनशास्त्र का उल्लेख करेंगे। इसे एक ऐसी गुह्य विद्या मान लिया गया है, जो सिर्फ कॉफी शॉप मैं अबूझ प्रश्नों पर चर्चा करते रहने के काम आ सकती है। किंतु जब वास्तविक जगत मे मनुष्य के जीवन और उसकी यथार्थ समस्याओं का प्रश्न आता है, तो इसे अप्रासंगिक मान लिया जाता है।

उपरोक्त प्रश्न के समग्र उत्तर के लिए हमें दर्शनशास्त्र की संरचना को समझना पड़ेगा। ऐसा मानना गलत होगा कि यह विषय मात्र विश्वविद्यालयों एवं कॉलेजों के आचार्य के लिए ही उपयोगी है। ऐसा करने पर हमें देकार्त, स्पिनोजा, लॉक, ह्यूम जैसे कई विख्यात चिन्तकों को नकार देना होगा। क्योंकि वे कभी भी किसी अकादमिक संस्थान के सदस्य नहीं रहे। साथ ही हमें यह भी समझना होगा कि इस विषय की प्रकृति एवं प्रवृत्ति सदैव अमूर्त ही नहीं होगी। “… ऐसा भी अनिवार्य नहीं है कि हर चिन्तक दार्शनिक समस्या पर चिंतन के लिए। (थेलीज़ के समान) आकाश की ओर देखें। तो ऐसे में हमें सर्वप्रथम यह समझना होगा। की दर्शनशास्त्र वस्तुत: क्या नहीं है? इससे हमें इस विधा से संबंधित कई भ्रांतियों का निवारण करने में भी सहायता मिलेगी।

सामान्यतः जब हम दर्शनशास्त्र शब्द को सुनते हैं, तो हमारे मनस में एक तर्कशास्त्री (Logician) अथवा एक आध्यात्मिक गुरु (Spiritual Guru) की छवि प्रकट होती है। कुछ तो इसे एक ऊंची मीनार पर बैठे हुए आत्ममुग्ध व्यक्ति (Self-obsessed person sitting on the top of the ivory tower) से भी जोड़कर देखते हैं। अंततः कुछ लोग इसे मात्र नैतिकता की चर्चा (Ethical Discussions) भर मान बैठते हैं।

क्या वास्तव में ऐसा ही है? क्या दर्शनशास्त्र के पास समकालीन सामाजिक उन्नति में योगदान देने के लिए कुछ भी नहीं है? यदि हम इस दृष्टिकोण को स्वीकार कर ले, तो हमें दर्शनशास्त्र की विपन्नता और असमर्थता (Poverty and inability of the discipline) को भी स्वीकार करना पड़ेगा।

यहां पर मेरा मत यह है यद्यपि साक्षात रुप से दर्शनशास्त्र का महत्व चिकित्सा, भौतिकशास्त्र, कंप्यूटरविज्ञान इत्यादि की तरह दिखाई तो नहीं पड़ता, किंतु मानव जीवन की समग्रता में इसका योगदान असीमित रहा है। यह भी सत्य है कि यह आवश्यक तो नहीं कि हर विधा को उसकी प्रासंगिकता के मापदंड पर मापने की प्रवृत्ति दर्शनशास्त्र पर भी उसी प्रकार आरोपित की जाए। 

यहां पर यह भी स्वीकार किया जा सकता है कि दर्शनशास्त्र के साथ जुड़ी हुई इन सभी छवियों को पूरी तरह से अनदेखा नहीं किया जा सकता, तथापि यह भी मानना पड़ेगा कि इस विषय की समझ कहींअधिक व्यापक एवं सारगर्भित होनी चाहिए।

कुछ लोगों ने दर्शन को भाषाई छद्म की कला” (Art of Sophistry) के रूप में भी स्थापित करना चाहा है और इसे जॉर्जियस एवं अन्य सोफिस्ट चिंतकों के साथ जोड़ कर देखा है। यहां पर यह कहना अनिवार्य हो जाता है दर्शनशास्त्र का प्रयोजन कहीं अधिक गरिमामय और कहीं अधिक विस्तृत है। स्मरण रहे यह चिंतक अपने अनुयायियो को वाककला में दक्ष करके उच्च राजनैतिक पदों पर पहुंचाना तथा प्रतिष्ठित करना चाहते थे और इसमें उनकी अकादमिक विधा ने निश्चित रूप से सहायता प्रदान की थी। किंतु मात्र इसे ही संपूर्ण विधा (Discipline in its entirety) मान लेना एक भूल होगी।

दूसरी भ्रांति यह है कि दर्शनशास्त्र सदैव अतींद्रिय अथवा आध्यात्मिक चर्चा (transcendental and/or spiritual discussions) में लिप्त रहता है। यहां पर यहां कहना अनिवार्य हो जाता है कि एक दर्शनशास्त्री संत’ (saint) अथवा बैरागी’ (hermit) हो तो सकता है, किंतु ऐसा हो ही यह अनिवार्य नहीं है। वस्तुत: ऐसा कोई भी व्यक्ति जो विचारों के अभिप्राय, आशय अथवा अर्थ पर प्रश्न उठाए, उनका स्पष्टीकरण खोजे, उनमें भेद स्थापित करे एवं निष्पक्ष तर्कों के माध्यम से नवीन विचारों को प्रतिष्ठित करने का प्रयास करे, वही दर्शनशास्त्र मे पारंगत माना जाता है। यदि हम यह स्वीकार करें, तो हमें यह मान लेने में भी कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि प्रत्येक विशेषज्ञ (चाहे वह किसी भी विषय का क्यों ना हो), यदि वह अपने विषय से संबंधित अतिसामान्य, मूलभूत, आधाररूप विचारों/प्रत्यय का निष्पक्ष विश्लेषण करता है, तो वह किसीनाकिसी रूप में दर्शनकार्य में हीं लिप्त माना जाएगा। इस प्रकार हम यह कह सकते हैं यह विषय (कभी-कभी जानबूझ कर, तो कभी-कभी अनजाने में) प्रत्येक क्षेत्र में एक पद्धति के रूप में प्रयुक्त कि जाता है। 

स्मरण रहे कि अपने विस्तृत अर्थ में प्रत्येक व्यक्ति एक चिंतक अथवा दार्शनिक होता है। अपने जीवनकाल में प्रत्येक व्यक्ति कभीनाकभी इन प्रश्नों से अवश्य गुजरता है कि जीवन का अर्थ क्या है?”, क्या इस जगत में आगमन से पूर्व मेरा कोई अस्तित्व था अथवा नहीं?”, “…और यदि था तो उसका स्वरूप क्या था?”, क्या मृत्यु के पश्चात भी जीवन होता है?” “…और अगर नहीं तो क्या होता है?” इस संदर्भ में उमेगू का कहना है कि: 

हममें से प्रत्येक व्यक्ति की जीवन अथवा जगत के बारे में कुछनाकुछ दार्शनिक दृष्टि अवश्य होती है। यहां तक कि ऐसा व्यक्ति जो दार्शनिक प्रश्नों को व्यर्थ मानता है, उसकी भी अपनी एक दार्शनिक दृष्टि अवश्य होती है। यहां तक कि जब हम यह कहते हैं कि हमें दर्शन नहीं करना चाहिए’, तो भी हम दर्शन कर रहे होते हैं। ऐसे मैं यह मान लेने मैं कोई भी समस्या नहीं होनी चाहिए कि हमें दर्शन का सहारा लेना ही पड़ता है।

यद्यपि यहां पर हम यह स्वीकार कर चुके हैं कि दर्शनशास्त्र की प्रवृत्ति को लेकर लोगों में मतभेद रहे हैं, किंतु सामान्य मानव जीवन में इसकी प्रासंगिकता एवं उपयोगिता को लेकर कोई भी मतभेद नहीं है। यह एक सर्वमान्य निष्कर्ष है कि दर्शनशास्त्र समाज में निष्पक्ष विश्लेषण करने एवं वैचारिक धरातल प्रधान करने की एक अतिमहत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह विषय आलोचनात्मक विचार के प्रस्तुतीकरण, निर्माण एवं बदलाव के लिए अत्यंत अनिवार्य है। ऐसे में कोई भी समाज जो दर्शनशास्त्र को नकारने सा प्रयास करता है, वह निश्चित रूप से पतन की ओर अग्रसर हो जाता है चाहे वह समाज में अपेक्षित नैतिकता, तार्किकता, न्याय, समन्वय, बंधुत्व, सहिष्णुता का प्रश्न हो या फिर कुछ और।

सुकरात एवं प्लेटो इस विषय के व्यावहरिक मूल्य को इस सीमा तक माना था कि इसे समाज में पुनरव्यवस्था के लिए एकमात्र संभावित संसाधन मान लिया था। उनका दृष्टिकोण निम्नलिखित कथन में स्पष्ट हो जाता है:

जब तक एक दार्शनिक राजा ना बन जाए अथवा राजा में दार्शनिक सद्गुण ना उत्पन्न हो जाएं, तब तक वह समाज पूरी तरह से स्वतंत्र एवं प्रगतिशील नहीं माना जा सकता

संभवत यही कारण है की आधुनिक राजनैतिक दार्शनिकों को प्लेटो की पादटिप्पणी से अधिक और कुछ भी नहीं माना गया था (“The entire history of western philosophy is nothing but simply the footnotes of what Plato has said”- A.N.Whitehead)। 

डेविड ह्यूम ने दार्शनिक को समाज के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण बताया। उनके अनुसार यद्यपि एक दार्शनिक जागतिक विषयों से दूर रहता है, किंतु वह अपने विचारों के द्वारा संपूर्ण समाज को प्रभावित करता है। कार्ल मार्क्स ने यद्यपि दर्शन के विश्लेषणात्मक पक्ष को नकार दिया था, किंतु समाज के पुनर्निर्माण इसे अतिमहत्वपूर्ण उपकरण या फिर हथियार (weapon for social reconstruction) के रूप में स्वीकार किया था। 

कहा भी गया है कि दर्शनशास्त्र वर्तमान समाज की आधारभूत मुद्दों की समग्र विवेचना के लिए उपकरण प्रदान करता है और संवाद के लिए स्पष्ट आधार भूमि प्रदान करता है और इसलिए वर्तमान काल में दर्शनशास्त्र की प्रासंगिकता को नकारा नहीं जा सकता है।

 

(Writer is Assistant Professor, Department of Philosophy, University of Lucknow) 

contact : prashant.philosophy@yahoo.com

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