Global Thinker

महर्षि पतंजलि के योग सूत्र में योग

महर्षि पतंजलि योग सूत्र का प्रारंभ करते समय लिखते हैं-“अथ योगानुशासनम् ।।प.यो.सू.1।। अर्थात अब योग की शिक्षा देने वाले ग्रन्थ का आरम्भ करते हैं। यहां पर योग की शिक्षा की बात आती है। अतएव सर्व प्रथम योग क्या है ,यह जानना आवश्यक प्रतीत होता है, तत्पश्चात उस योग को प्राप्त करने की शिक्षा और उसकी पद्धति एवं उसके उपकरण आदि के विषय में चर्चा करना होगा।

पतंजलि ने योग के विषय में स्वयं स्पष्ट किया है कि चित्त वृत्तियों का निरोध योग है यथा- योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः। ।प.यो.सू.2।।महर्षि पतंजलि योग को बड़े ही सरलता से कह देते हैं कि चित्त के वृत्ति की निरूद्धावस्था ही योग है। इस प्रकार योग वस्तुतः एक विशेष अवस्था का नाम है।

यह विशेष अवस्था किसकी है और कैसे है? प्रश्न स्वाभाविक ही है, पतंजलि ने पूर्व सूत्र में बताया है कि यह विशेष अवस्था वृत्तियों की है। प्रश्न ओर भी जटिल हो जाता है कि वृत्तियां किसकी? इस प्रश्न का उत्तर योग सूत्र सरलता से देता है कि ये वृत्तियां चित्त की हैं।

यह भी पढ़ें – इंजीनियर्स दिवस विशेष: जानें हर वर्ष 15 सितंबर को क्यों मनाया जाता है इंजीनियर्स डे

सरल उत्तर भी वृत्ति और चित्त में उलझ जाता है कि आखिर चित्त क्या है और वृत्तियां कौन-कौन सी हैं। योग सूत्र के भाष्याकारों के मतानुसार अंतःकरण सामान्य को ही चित्त कहा गया है।

वेदान्त- शास्त्र में अंतःकरण चार बताये गये हैं-

1.मन

2.बुद्धि

3.चित्त

4.अहंकार

सांख्य- शास्त्र के अनुसार अंतःकरण के तीन भेद हैं-

1.मन

2.बुद्धि

3.अहंकार।

य”अंतःकरणं त्रिविधं दशधा बाह्यं त्रयस्य विषयाख्यम्।।” (सां.का.33)।

योग-शास्त्र में अंतःकरण के इन तीनों भेदों को स्वीकार किया गया है। आचार्य विज्ञान भिक्षु के मतानुसार अंतःकरण के अंतर्गत मन,बुद्धि,चित्त और अहंकार योग में स्वीकृत है। आचार्य वाचस्पति मिश्र ने चित्त शब्द को बुद्धि या अंतःकरण (के उपलक्षण) के रूप मे ग्रहण किया है- “चित्तशब्देनान्तःकरणं बुद्धिमुपलक्षयति।।”(त.वै.पृ.7)

योग- शास्त्र के सम्यक विश्लेषण के उपरांत साधारण भाषा में अहंकार की प्रेरणा से मन और बुद्धि के संयोग को चित्त कह सकते हैं।कहीं – कहीं मन को ही चित्त मान लिया गया है। संकल्प और विकल्प से मन का निर्माण होता है। संकल्प और विकल्प के यथार्थ को समझने की शक्ति को बुद्धि कहते हैं।मन और बुद्धि के संयोग से चित्त का निर्माण होता है ,जिसमें अहंकार एक तरह का उत्प्रेरक का कार्य करता है ।

अहंकार के उत्प्रेरण से मन और बुद्धि के मध्य विशेष प्रकार की तरंग उत्पन्न होती हैं जिसे वृत्ति कहते हैं। योग-शास्त्र में मान्य परिभाषा के अनुसार, चित्त जिस-जिस स्थिति या रूप में रहता है अर्थात परिणत होता है ,वे स्थितियाँ चित्त की वृत्तियाँ हैं। यथा-” वर्ततेऽनयेति वृतिः।।” इनकी प्रमुख तीन श्रेणियां है-

  1. सात्विक वृत्तियाँ। 
  2. राजस वृत्तियाँ ।
  3. तामस वृत्तियाँ ।

महर्षि पतंजलि अपने योग सूत्र में लिखते हैं कि ” वृत्तयः पञ्चतय्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः ।।” अर्थात क्लिष्ट और अक्लिष्ट के भेद से पांच प्रकार की वृतियाँ होती हैं। चित्त में वृत्ति निरन्तर उत्पन्न होती रहती हैं, जो प्रमुख रूप से पांच प्रकार की क्लिष्ट और अक्लिष्ट के भेद से मानी जाती हैं।जो प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा,स्मृति के नाम से जानी जाती हैं।यथा- “प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः ।।”

चित्त की इन क्लिष्ट और अक्लिष्ट भेद की पांचों वृत्तियों को निरुद्ध करने के लिए महर्षि पतंजलि ने योग अनुशासन का प्रतिपादन किया है। योग अनुशासन को साररूप में अष्टांग योग के नाम से जानते हैं।अष्टांग योग का सम्यक अभ्यास करने से चित्त निरुद्ध हो जाता है। चित्त की इस निरुद्धावस्था में हम अपने स्वरूप में स्थित हो जाते हैं।

यहाँ हम से तात्पर्य आत्मा या पुरुष से है। यथा- तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्। ।

मन ,शरीर में स्थित है इस लिए शरीर का निश्चल और स्थिर होना अत्यंत आवश्यक है, ठीक उसी तरह जैसे जल तरंग को शांत रखने के लिए घट का निश्चल और स्थिर होना आवश्यक है। घट अर्थात शरीर को निश्चल और स्थिर करने के लिए अष्टांग योग का निरूपण किया गया है। अष्टांग योग के सहारे ही घट अर्थात शरीर में स्थित चित्त वृत्ति रूपी जल तरंग को निश्चल और स्थिर किया जा सकता है।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि:-

शरीर में चित्त की वृत्तियों की निरुद्धावस्था, जिसमें स्व अर्थात आत्मा का बोध होता है,वही योग है।

Show More

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button
%d bloggers like this: